
बीकानेर। हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में मनाए जाने वाले मोहर्रम के अवसर पर पूरे देश में मुस्लिम समाज द्वारा ताजिया निकाला जाता है। लेकिन बीकानेर का एक मोहल्ला ऐसा है, जहां सदियों पुरानी एक अनोखी परंपरा आज भी जीवंत है। यह परंपरा न सिर्फ बीकानेर की, बल्कि पूरे भारत की संस्कृति में अपनी खास जगह रखती है।
हम बात कर रहे हैं बीकानेर के सोनगिरी कुआं क्षेत्र में स्थित डीडू सिपाहियों के मोहल्ले की, जहां हर साल मोहर्रम पर मिट्टी का ताजिया बनाया जाता है। यह ताजिया अपनी खासियत और परंपरागत निर्माण प्रक्रिया के कारण पूरे देश में अनूठा है। मोहल्ले के बुजुर्गों का कहना है कि यह परंपरा बीकानेर की स्थापना से भी पुरानी मानी जाती है।मोहल्ले के बुजुर्ग साबिर मोहम्मद बताते हैं, जब से होश संभाला है, इस ताजिए को बनते देखा है। हमारे बुजुर्ग इसे बनाते थे, और अब हम इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। उनका दावा है कि दुनिया में कहीं भी मिट्टी का ताजिया नहीं बनता, केवल बीकानेर के इस मोहल्ले में ही यह परंपरा देखने को मिलती है।इस ताजिए की एक खास बात यह है कि इसे पांच से छह दिन में मोहल्ले के युवक और बुजुर्ग मिलकर परंपरागत तरीके से तैयार करते हैं। ताजिया जहां बनाया जाता है, उसी स्थान पर पास की एक होद में इसका विसर्जन कर ठंडा किया जाता है। खास बात यह है कि अगले वर्ष फिर इसी मिट्टी से नया ताजिया तैयार किया जाता है।मोहल्ले के सरवर अली और रफीक बताते हैं कि मिट्टी को गूंधने, उसे आकार देने और सजाने में कई दिन लगते हैं। युवा वर्ग पूरे जोश और श्रद्धा के साथ इस काम में हिस्सा लेता है। न तो इसमें कोई प्लास्टिक या लकड़ी का इस्तेमाल होता है और न ही इसे कर्बला तक ले जाया जाता है यह पूरी तरह मिट्टी से निर्मित होता है और मिट्टी में ही विलीन हो जाता है।बीकानेर का यह अनूठा मिट्टी का ताजिया न केवल धार्मिक भावनाओं का प्रतीक है, बल्कि एक ऐतिहासिक धरोहर भी है, जो आने वाली पीढ़ियों को अपनी संस्कृति से जोड़ने का कार्य कर रही है। ऐसी विरासतें ही किसी शहर की पहचान को खास बनाती हैं।